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आयुर्वेद


आयुर्वेद का इतिहास

आचार्य सुश्रुत ने आयुर्वेद की व्याख्या करते हुये अपने ग्रन्थ में लिखा है कि -
आयुस्मिन विद्यते, अनेन वाडडयुर्विन्दत्यायुर्वेदः। (सु. सू. 1.14)
अर्थात जिस शास्त्र में आयु को बढ़ाने सम्बन्धित ज्ञान की विषद चर्चा हो उसे आयुर्वेद कहते है।

आयुर्वेद भारत ही नही विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा पद्धति के रूप में मानी जाती है। यह भारत का गौरव है, यहां के ऋषियों मुनियों ने अथक परिश्रम करके इसको जीवित रखा हैं। आयुर्वेद को वेदों का उपवेद माना जाता हैं। कुछ मनीषियों के अनुसार इसे पांचवे वेद के रूप में माना जाता है। आयुर्वेद की विशेषता रही है कि वह रोग के साथ ही रोग के कारण को भी नष्ट करने की क्षमता रखता है, हमारे ऋषियों मुनियों ने रोगों के उपचार के लिए इसमें पूर्ण ज्ञान समाहित किया है।

आयुर्वेद के अवतरण का इतिहास-

आयुर्वेद के अवतरण की कहानी बहुत ही व्यवस्थित है परन्तु अलग-अलग ऋषियों ने अपने अपने ग्रन्थों में अलग अलग तरह से वर्णन किया है-

सुश्रुत संहिता (सु. सू. 1-5-19) के मतानुसार भगवान ब्रम्हा जी ने सृष्टि रचना के पहले ही आयुर्वेद की रचना कर दी थी। सर्वप्रथम उन्होंने इस ज्ञान को दक्ष प्रजापति को प्रदान किया और दक्ष प्रजापति ने दोनों अश्वनी कुमारों को यह ज्ञान प्रदान किया। अश्वनी कुमारों ने देवताओं के अधिपति इन्द्र को यह ज्ञान प्रदान किया, इन्द्र से धनवन्तरि ने यह ज्ञान प्राप्त करके अपने शिष्य औपधेनव , वैतरण, औरभ्र, पौष्कलावत, करवीर्य, गोपुररक्षित, सुश्रुत, भोज, निमि, कान्कायन, गार्ग्य और गालव को प्रदान किया। इनके द्वारा ही समस्त संसार में आयुर्वेद के ज्ञान का प्रचार हुआ।

चरक संहिता (च. सू. 1, 3-24) के मतानुसार ब्रम्हा जी ने यह ज्ञान दक्ष प्रजापति को प्रदान किया, दक्ष प्रजापति ने अश्विनी कुमारों को दिया और अश्विनी कुमारों से यह ज्ञान देवाधिपति इन्द्र ने प्राप्त किया। कालान्तर में प्राणियों के दुखः-दर्द, व्याधि मिटाने के उद्देश्य से ऋषियों के प्रतिनिध रूप में भरद्वाज ने इस ज्ञान को इन्द्र से प्राप्त किया और सभी ऋषियों को प्रदान किया। उन ऋषियों ने भी अपने-अपने शिष्यों को आयुर्वेद का ज्ञान प्रदान किया। महर्षि भरद्वाज के शिष्य महर्षि पुर्नवसु आत्रेय ने अपने छः शिष्य अग्निवेश, भेल, जतूकर्ण, पराशर, हारीत और क्षारपाणि को यह ज्ञान प्रदान किया। इन सभी शिष्यों में अग्निवेश ज्यादा बुद्धिमान थे। उन्होंने सर्वप्रथम आयुर्वेद के ऊपर एक पुस्तक लिखी। इसके बाद सभी शिष्यों ने अपनी अपनी मति के अनुसार पुस्तकों की रचना की।
अष्ट्राग संग्रह (अ.सं.सू. 16-9) के मतानुसार ब्रम्हा जी ने आयुर्वेद का यह ज्ञान दक्ष प्रजापति को और दक्ष प्रजापति ने अश्विनी कुमारो को और अश्विनी कुमारों ने इन्द्र को और इन्द्र ने लोक कल्याण हेतु महर्षि धन्वन्तरि, भारद्वाज, निमि, काश्यप, आलम्वापन और पुनर्वसु को प्रदान किया। इन ऋषियों ने अपने अपने तरीके से ग्रन्थों की रचना की और इसके साथ ही अपने शिष्यों को भी आयुर्वेद का ज्ञान प्रदान किया।

पूर्व कालीन इतिहास-

अनेक चिकित्सा शास्त्रों के अनुसार आयुर्वेद का यह ज्ञान ब्रम्हा जी से दक्ष प्रजापति से अश्विनी कुमारो से इन्द्र से होता हुआ कालान्तर में अनेक ऋषियों से होता हुआ मानव तक पहुंचा। मानव सभ्यता के उद्य से पूर्व प्रत्येक जीव अपनी चिकित्सा स्वयं करता था, वह आस-पास के पशु-पक्षियों का अनुसरण कर अपने शरीर में हुये घाव आदि को चाटकर, चूसकर, मिट्टी आदि का लेपन कर चिकित्सा करता था। समय के साथ मानव सभ्यता में सुधार आता गया और उसने अपनी चिकित्सा पद्धतियों मे भी विकास किया। वैदिककाल में वेदों की रचना हुई और इन्ही वेदों के अन्दर से अनेकों चिकित्सा पद्धतियों का विकास हुआ। इनमे अग्निचिकित्सा, जलचिकित्सा, सूर्यचिकित्सा, वायुचिकित्सा, विषादिचिकित्सा, शल्यकर्म, वशीकरणादि, दुःस्वप्ननाशन आदि अनेक थे।

अथर्ववेद में चिकित्सा से सम्बन्धित सभी विषयों का विषद विवरण प्राप्त होता है। जैसे- विभिन्न औषधियों के नाम और विवेचन, रोग नाशन, बाजीकरण, वशीकरण, विभिन्न मणियों की जानकारी तथा अनेक चिकित्सा पद्धतियों की जानकारी प्राप्त होती है।

इसके कुछ समय बाद को वैदिकोत्तरकाल के रूप में मानते हैं इस काल मे आयुर्वेद का और विकास हुआ, चरकसंहिता और सुश्रुतसंहिता जैसे ग्रंथों का निर्माण हुआ जो बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं।

इसके आगे के काल को आदि मध्यकाल के रूप में मानते हैं, इस काल में रसशास्त्र और तन्त्रचिकित्सा का विकास हुआ। नागार्जुन ने रसशास्त्र के विकास का कार्य किया, इसमें पारदादि खनिज द्रव्यों से चिकित्सा और धातु परिवर्तन की क्रिया प्रारम्भ हुई। इस काल में अनेक आयुर्वेद के जानकार पैदा हुये जिन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की जैसे- वाग्भट्टकृत अष्टांगहृदय, माधवकरकृत माधवनिदान, वृन्दकृत सिद्धयोग, चक्रपाणिकृत चक्रदत्त, तीसटकृत चिकित्साकलिका आदि है।

इसके आगे के काल को उत्तर मध्यकाल माना जाता है। इस काल में आयुर्वेद में कोई नई रिसर्च नहीं हुई, एक ठहराव की स्थिति आ गई। इस काल में भी कुछ ग्रन्थों की रचना हुई परन्तु वे पूर्व के ग्रन्थों पर ही आधारित थे। इस समय शार्ङधर संहिता, रसरत्नसमुच्चय, भावप्रकाशादि ग्रंथों का निर्माण हुआ। इसी काल में मुगलों और अंग्रेजों का भारत में कब्जा हुआ और उन्होनें हमारी महत्वपूर्ण धरोहरों को अधिकांसतः नष्ट कर दिया जो हमारे लिए बहुत ही नुकसानदायक था।

 आयुर्वेद के ठहराव का कारण-

1. मुगल एवं अंग्रेजों ने भारतवर्ष में लगभग 400 वर्षो तक राज्य किया। इनके शासनकाल में अनेंकों लाइव्रेरियां जला दी गई, इससे अधिकांस आयुर्वेद के ग्रन्थ नष्ट हो गये और अनेंको आयुर्वेद की पाण्डुलिपिया कम मुल्य पर खरीद कर अपने देशों में ले गये जो आज भी उनके संग्रहालयों में देखी जा सकती है। मुगलों ने यूनानी चिकित्सा शास्त्र और अंग्रेजो ने एलोपैथी चिकित्सा का प्रचार प्रसार अधिक किया, इससे भी आयुर्वेद का विकास प्रभावित हुआ।

2. जैन और बौद्ध धर्म अहिंसा का प्रचार प्रसार करते थे, इससे आयुर्वेद के शल्यचिकित्सा का कार्य प्रभावित होने लगा, शल्यचिकित्सा में शवक्षेदन आदि कार्य को हीन दृष्टि से देखते थे इस कारण प्रैक्टिकल ज्ञान का अभाव होने लगा, इससे शल्यचिकित्सा के प्रति लोगों का झुकाव कम होने लगा और नवीन शोध रूक गये।

3. मुगलों और अंग्रेजों की वजह से हमारे अधिकांस ग्रन्थ नष्ट हो चुके थे। अब केवल आयुर्वेद का ज्ञान वैद्यो तक ही सीमित रह गया था, इसके परिणाम स्वरूप वैद्यों ने आयुर्वेद पर अपना एकाधिकार मान लिया। इस विद्या को वे गुप्त रखने लगे और  अन्य को इसकी जानकारी नही देते थे, इन वैद्यों के खत्म होने के साथ ही यह विद्या भी लुप्त होने लगी। इसका प्रभाव आज भी देखने को मिलता है।

4. भारत पर सैकड़ों वर्षो तक विदेशी राजाओं का राज्य रहा। उन राजाओ ने अपने देश की चिकित्सा पद्धति को तो बढ़ावा दिया परन्तु हमारे आयुर्वेद को भी बढ़ाने के लिए सहयोग नही किया। इस कारण से युनानी और ऐलोपैथिक पद्धतियों का विकास हुआ परन्तु आयुर्वेद लुप्तप्रायः होता गया।
आज भी हमारे देश की सरकारों ने अनेकों ऐलोपैथिक मेडिकल कालेजों को खोलने में पूर्ण सहयोग किया परन्तु जितना आयुर्वेद को बढ़ावा देना चाहिये था वह नही दिया। आज भी अगर देखा जाय तो सरकार के चिकित्सा वजट का 1 से 5 प्रतिशत तक ही आयुर्वेद के विकास के लिए खर्च किया जाता है।

5. जंगलो में फैली हुई वनस्पतियों के नाम और पहचान के जानकारों का अभाव होने से भी वनस्पतियों के उपयोग में परेशानी आने लगी। इससे रोग निवारक योगों को बनाने में परेशानी बढ़ने लगी।

6. पारद के संस्कारों से सम्बन्धित जानकारों का अभाव होने से पारद शोधन बाधित हुआ और रसादि औषधियों का निर्माण सही ढ़ंग से नही होने पर रोगों को दूर करने में परेशानी आई।

7. देश की जनसंख्या वृद्धि के कारण जंगलों की अधिकता से कटाई हो रही है। जब जंगल ही नष्ट होंगे तो औषधियों का अभाव होगा ही और औषधियों के अभाव में दवाओं का निर्माण प्रभावित होता है।

आयुर्वेद की विशेषता-

आयुर्वेद रोग के जड़ तक जाकर उसे नष्ट करने की चिकित्सा करता है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि वह प्रथम स्तर से ही रोगी की चिकित्सा करता है, आयुर्वेद का उद्देश्य होता है कि वह लोगों को रोगी होने ही न दें अर्थात प्रथमतः रोग होने के लक्षणों को देख कर रोगी के खाने पर परिवर्तन करके उस रोग को बढ़ने से रोक दें। इसके बाद दवा का निर्धारण कर रोग को नष्ट करे।

आयुर्वेद की अपेक्षा आधुनिक चिकित्सा पद्धति रोग से होने वाले उपद्रव को तुरन्त नियन्त्रित करती है, यह किसी भी तरह के इंफेक्सन को नियंत्रित तो कर सकती है परन्तु उस रोग को पूरी तरह से दूर कर सकेगी इसका कहना मुश्किल है। आप इसे इस पद्धति की कमजोरी कह सकते है।

विश्व के अधिकांस मनीषियों का मानना है कि चारों वेद संसार के अति प्राचीन ग्रन्थ है। सामवेद के एक भाग में आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद कहा जाता है। आयुर्वेद ने शरीर को पंच महाभूततत्वों से निर्मित माना है यह तत्व है आकाश, जल, अग्नि, पृथ्वी और वायु। इसके बगैर शरीर निर्माण की कल्पना भी नही की जा रही है।

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